Monday, September 24, 2012

☆҉❤☆҉
ज़बां को नज़र का दर्जा दो ज़रा,
बंद आँखों से नज़ारा-ऐ-रूह दिखा,
इश्क़ को अता कर ख़ुदा का रुतबा,
हर नब्ज़,हर धड़कन को ज़रिया बना...

तू उसकी बंदगी में सब कुछ लुटा,
या तो तुझ में ही रहे क़ाएनात,
या आज़ाब ज़िन्दगी,हो जाए फ़ना,
यूँही जुनूं की हदों को बेहद कर जा...

सिक्के में नफ़स का ताबूत बना,
ढूँढता है उसको दरवेश-ऐ-समा,
जिस जहां में समां गया है जो,
घुमते क़दमों में हर अक्स तेरा...
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