Tuesday, September 25, 2012

आलम-ऐ-बदहवासी...


हकीक़त की हकीक़त भला पहचानेगा कौन?
आंखों में जमे सुर्ख लहू को जानेगा कौन?
हम तो बस इस सफ़र में एक क़तरा हैं,
हमारी हस्ती के मिटने बाद,हमें गर्दानेगा कौन?
ग़ुरबत में गिरा आंसूं संभालेगा कौन?
उजडती कोख़ का आँचल सहलाएगा कौन?
वक़्त की कसौटी पर खुशियाँ दम तोड़ती हैं,
ऐसी बेबस राहों की वीरानी संवारेगा कौन?
ज़माने की तेज़ रफ़्तार का तूफ़ान थामेगा कौन?
गुज़रते हुए लम्हों की वखत मानेगा कौन?
बीता हुआ हर हसीं लम्हा लौट कर आता नहीं है,
रुक कर,रोक कर,उन लम्हों को पुकारेगा कौन?

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