ये अकेलेपन का स्याह साया,जबरन ओढ़ा नहीं जाता,
तू शब् की सिलवटों में रहता है,उजालों में क्यूँ नहीं आता...
हक़ जताता रहा इतने तू,के अब ना हक़ जिया नहीं जाता,
उम्मीदों से भरे दामन को रुख से हटाने क्यूँ नहीं आता...
हर इक इसरार से बे हिस,अश्क पलकों पे संभाला नहीं जाता,
जमी इस ओंस की चादर को,समझाने क्यूँ नहीं आता...
तम्मनाएं,शिकवे गिले इनसे दिल को बहलाया नहीं जाता,
तू फ़खत सीराब-ऐ-ख़याल था,ये बतलाने क्यूँ नहीं आता...
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