Tuesday, September 25, 2012

इल्तेजा...

अपनी यादों की पनाह में,ये लम्हे गुज़र जाने दो,
शाम ढलते की ओस,मेरी पलकों पे ठहर जाने दो...

अभी कुछ प्यास बाक़ी है,अभी रूखे हैं लब मेरे,
आज इस सुरमई झील की गहराई में उतर जाने दो...

मेरी हर आह में,एक उम्र की रुस्वाइयाँ हैं बिखरी,
मुझे अपने आगोश के सिरहाने पर सिमट जाने दो...

ये जो उलझे से रहते हैं बेमुरव्वत गेसू मेरे,
तुम्हारी एक नज़र की हयाई में सुलझ जाने दो...

मेरा सूखे दरख्तों से अब वास्ता कैसा,
मुझे खिलते रौनक-ऐ-चमन में महक जाने दो...

पि ना पाऊंगी अब बेबस जुदाई का ज़हर,
मेरी नम आँखों को कुछ अश्क तो छलकाने दो...

सितम ये नहीं के हर अरमान की मुक्कमल हद है,
सितम ये के अरमानो के छुअन को यूँही जाने दो...

मेरी मोहब्बत की इल्तिजा जान कर जाना,
ये नहीं के बिना सुने कह दो,के जाने दो...

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