Tuesday, September 25, 2012

एक ख़याल...


जो आंसूं का कोई रंग होता,
तो क्या क्या न हुआ होता...
ज़िन्दगी का ये बेनूर चेहरा,
सतरंगी रंगों का आइना होता...
जो उठती आँखें फ़लक की ओर,
तो नीली बूंदों से हर ग़म बयां होता...
जो नज़रें टिकतीं खिले गुलाबों पर,
तो सुर्ख हर अश्क का क़तरा होता...
खिलते बाग़ों पर थमती जो निगाह,
तो सब्ज़ ग़म का बरसता सैलाब होता...
हर एक रंग से रिश्ता होता,हरेक रंग से इज़हार होता,
अश्कों को चुप चाप बरसने का सुकूँ ना हासिल होता...

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