Tuesday, October 23, 2012

बे-नक़ाब रूहें...

दुआओं का आसरा न सही,दुआओं की उम्मीद रहती है,
फ़लक से बूंदों की तलबगार जिस तरहां ज़मीन रहती है...

इस दिखावे के आल़ा बाज़ार में पोशीदा तस्वीरें रहती है,
जहां बे-नक़ाब रूहें हैं बस्ती वहाँ ज़िन्दगी 'फ़क़ीर' रहती है...

ये कैसी मेहसुसियातें हैं,जो सिक्को सी उछलती फिरती हैं,
जो होती हैं, धड़कती हैं,गज़ब खामोश उनकी चीखें रहती हैं...

Saturday, October 13, 2012

कुछ कह दिया होता....

कुछ कह दिया होता,
न समझ पाती तो सुन तो लेती,
वो जो तुम सिले लबों से कहते रहे,
जाने क्यूँ कबसे किस लिए सहते रहे,
रेत के मकाँ जैसे बनते रहे डेहते रहे,
बादलों की कोख से बारिश बन बहते रहे,
चाँद की मद्धम रौशनी सा मुझ तक जो पहुंचा,
वो दर्द अधरों से चुन तो लेती ,
जो आँखों तक पहुंचा ही नहीं,
वो अनजाना ख़्वाब बुन तो लेती,
काश कुछ कह दिया होता...