Tuesday, October 23, 2012

बे-नक़ाब रूहें...

दुआओं का आसरा न सही,दुआओं की उम्मीद रहती है,
फ़लक से बूंदों की तलबगार जिस तरहां ज़मीन रहती है...

इस दिखावे के आल़ा बाज़ार में पोशीदा तस्वीरें रहती है,
जहां बे-नक़ाब रूहें हैं बस्ती वहाँ ज़िन्दगी 'फ़क़ीर' रहती है...

ये कैसी मेहसुसियातें हैं,जो सिक्को सी उछलती फिरती हैं,
जो होती हैं, धड़कती हैं,गज़ब खामोश उनकी चीखें रहती हैं...