कुछ कह दिया होता,
न समझ पाती तो सुन तो लेती,
वो जो तुम सिले लबों से कहते रहे,
जाने क्यूँ कबसे किस लिए सहते रहे,
रेत के मकाँ जैसे बनते रहे डेहते रहे,
बादलों की कोख से बारिश बन बहते रहे,
चाँद की मद्धम रौशनी सा मुझ तक जो पहुंचा,
वो दर्द अधरों से चुन तो लेती ,
जो आँखों तक पहुंचा ही नहीं,
वो अनजाना ख़्वाब बुन तो लेती,
काश कुछ कह दिया होता...
न समझ पाती तो सुन तो लेती,
वो जो तुम सिले लबों से कहते रहे,
जाने क्यूँ कबसे किस लिए सहते रहे,
रेत के मकाँ जैसे बनते रहे डेहते रहे,
बादलों की कोख से बारिश बन बहते रहे,
चाँद की मद्धम रौशनी सा मुझ तक जो पहुंचा,
वो दर्द अधरों से चुन तो लेती ,
जो आँखों तक पहुंचा ही नहीं,
वो अनजाना ख़्वाब बुन तो लेती,
काश कुछ कह दिया होता...
No comments:
Post a Comment